Saturday 1 December, 2007

ऊंची विकास दर ही नहीं है सब कुछ

आंखिरकार केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने देश की अर्थव्यवस्था की इस सच्चाई को कबूल लिया है कि चालू वित्तीय वर्ष में विकास दर दहाई का महत्वाकांक्षी आंकड़ा नहीं छू पाएगी। जुलाई-सितंबर 2007 की तिमाही में विकास दर 8.9 प्रतिशत रह जाने के लिए उन्होंने निर्माण क्षेत्र में आई मंदी को जिम्मेदार ठहराया है।

आंकड़े बताते हैं कि बीते वर्ष में इसी अवधि में जब विकास दर 10.2 प्रतिशत का आंकड़ा छू रही थी तब इसमें निर्माण क्षेत्र 12.7 फीसदी की तेज गति से योगदान कर रहा था। चालू वित्तीय वर्ष की दूसरी तिमाही में उसकी विकास दर 8.6 फीसदी रह गई है। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़े यह भी खुलासा करते हैं कि कृषि और खनन क्षेत्र को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों में विकास दर या तो घटी है या फिर मंद हुई है। कृषि क्षेत्र की विकास दर 2.9 फीसदी से बढ़कर 3.6 फीसदी के संतोषजनक आंकड़े को छू रही है तो इसका श्रेय सरकार की नीतियों को कम, इंद्रदेवता को ज्यादा जाता है।

दरअसल, 2006-07 में देश की विकास दर के दहाई का आंकड़ा छूने की सबसे बड़ी वजह दो साल पहले ब्याज दरों के न्यूनतम स्तर पर आ जाना था। जब हम विकास दर के इस आंकड़े पर अपनी पीठ थपथपाने में जुटे थे तब हम भूल रहे थे कि धन की आसान उपलब्धता अंतत: मुद्रास्फीति की दर को बेकाबू कर सकती है। और हुआ भी यही।

मुद्रास्फीति की दर एक समय 6.5 फीसदी से भी ऊपर पहुंचने लगी थी। नतीजतन, भारतीय रिजर्व बैंक को इस पर काबू करने के लिए कड़े कदम उठाने पड़े। उसने इस वित्त वर्ष में तीन बार सीआरआर बढ़ाकर बाजार से मुद्रा समेटने के उपक्रम किए जिसके कारण मुद्रास्फीति की दर बमुश्किल चार प्रतिशत पर आ सकी है।

हालांकि मुद्रास्फीति की दर पर लगाम लगने के तमाम सरकारी आंकड़े जमीनी हकीकत का बयान नहीं करते हैं और उनसे आम लोगों की जरूरतों की चीजों की कीमतों में बीते कुछ महीनों में आई तेजी कतई परिलक्षित नहीं होती है। फिर भी यह सच है कि रिजर्व बैंक कड़े कदम नहीं उठाता तो विकास और मुद्रास्फीति की ऊंची दरें पहले से ही समृद्धि के ऊंचे पायदान पर बैठे थोड़े से लोगों को फायदा पहुंचातीं और आम लोगों की परेशानियों में इजाफा होता।

भारत जैसे विकासशील देश के लिए ऊंची विकास दर से ज्यादा जरूरी है कि विकास के लाभों का यथासंभव समान वितरण हो और उसकी कीमत आम लोगों को नहीं चुकानी पड़े। सरकार के शीर्ष स्तर पर विकास के मानवीय चेहरे की बात बार-बार और बहुत गंभीरता से दोहराई जाती रही है। काश, उस पर अमल भी उतनी गंभीरता से होता।

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