Saturday, 20 October 2007

'इन्वेस्टर से पूछे बिना रकम ट्रांसफर गलत'

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इन्वेस्टमेंट करने वालों की रकम को म्युचुअल फंड उनकी सहमति के बगैर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को नहीं सौंप सकते, भले ही इन्वेस्टर पर टैक्स चुकाने में कोताही का आरोप हो।

एस. बी. सिन्हा की अध्यक्षता वाली बेंच ने इस बारे में यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया की अपील खारिज कर दी। यूटीआई ने रेवेन्यू डिपार्टमेंट की ओर से डिफॉल्टर घोषित किए गए एक इन्वेस्टर से पूछे बिना उसकी रकम ट्रांसफर कर दी थी। कोर्ट के मुताबिक, यह अवैध है। इनकम टैक्स एक्ट, 1961 के सेक्शन 226(3) का मतलब यह नहीं लगाया जा सकता है कि यूनिट होल्डर को कोई नोटिस दिए बिना यूटीआई को यूनिटों का निपटारा करने का अधिकार है। यह काम न सिर्फ जल्दबाजी में किया गया, बल्कि गैर-कानूनी भी है। यह कहना गलत है कि स्कीम के तहत इन्वेस्टर की इजाजत के बिना 1 सितंबर 2001 से रीपरचेज की इजाजत थी। यह इन्वेस्टर पर निर्भर है कि वह इस बारे में ऑप्शन दे।

इस केस में यूटीआई और इन्वेस्टर दोनों ने अपीलें दाखिल की थीं। आंध्र हाई कोर्ट ने यह फैसला दिया था कि इन्वेस्टर को पांच साल के बाद सभी यूनिटों का भुगतान मूल्य पाने का हक है। बी. एम. मालानी नाम के शख्स ने यूटीआई की कैपिटल गेन्स स्कीम में 1998 में मंथली इनकम प्लान के तहत 65 लाख रुपये इन्वेस्ट किए थे। इसमें पांच साल तक रकम नहीं निकाली जा सकती थी, लेकिन 1 सितंबर 2001 से यूनिट खरीदने की इजाजत थी। रीपरचेज का मूल्य नेट असेट वैल्यू पर आधारित था। इनकम टैक्स डिपार्टमेंट के डिमांड नोटिस का पालन करते हुए यूटीआई ने मालानी की 43.69 लाख रुपये से ज्यादा रकम ट्रांसफर कर दी थी। उसने 6.93 रुपये प्रति यूनिट के हिसाब से कैलकुलेट कर यह रकम तय कर दी।

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