दृष्टिकोण. वित्त मंत्रालय और सेबी ने शेयर बाजार के बुल को सींगों से पकड़कर उस धारणा को चुनौती दी है कि बढ़ता सेंसेक्स नीति निर्धारकों को निष्क्रिय बना देता है। भारतीय रिजर्व बैंक(आरबीआई) ने काफी पहले यह चेतावनी दी थी कि बाजार में अल्पकालीन सटोरियों को लेन-देन करने या विदेशों में जमा अघोषित भारतीय धन के अनियंत्रित पार्टिसिपेटरी नोट्स के जरिए देश के शेयर बाजार में निवेश की इजाजत देने की नीति सही नहीं है और इसे रोकने की जरूरत है।
लेकिन रिजर्व बैंक के सुझावों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। दिसंबर २00३ से तकरीबन ५0 अरब डॉलर का विदेशी पूंजी निवेश भारतीय शेयर बाजार में हो चुका है, जिसमें से तकरीबन आधा पी-नोट्स के जरिए आया है।
१९९१ में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने यह घोषणा की कि भारत ऐसी विदेशी पूंजी, जो दीर्घकालीन प्रकृति की हो और जिसके स्रोत ज्ञात हों, के लिए निवेश के दरवाजे खोल देगा। इसके बाद फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर्स रेगुलेशंस, १९९५ बनाया गया, जिसने विदेशी संस्थागत निवेशकों(एफआईआई) का रजिस्ट्रेशन शुरू किया।
यदि सेबी को यह लगता कि आवेदक ‘सही और उपयुक्त व्यक्ति’ नहीं है, तो उन्हें संभवत: रजिस्ट्रेशन से इनकार कर दिया जाता। यह कहने की कोई जरूरत नहीं है कि वास्तव में किसी भी अल्पकालीन, हेज फंड निवेशकों ने इस प्रक्रिया के जरिए बाजार में घुसने की कोशिश नहीं की। इसके दो कारण हैं- पहला, चूंकि उन्हें जल्दी रिटर्न चाहिए, इसलिए वे खुद को बाजार में उपयुक्त नहीं मान रहे थे। दूसरा, १९९0 के शुरुआती दौर में हेज फंडों की संख्या ही काफी कम थी।
१९९७ में आए एशियाई संकट, १९९९ में तकनीकी जगत में आई क्रांति और वर्ष २00१ में अमेरिका में ग्यारह सितंबर को हुए हादसे के दौर तक तो विदेशी संस्थागत निवेश (एफआईआई) की प्रक्रिया ठीक-ठाक ढंग से चलती रही, चूंकि कोई भी वास्तव में भारत जैसे ‘जोखिम भरे’ बाजार में निवेश नहीं करना चाहता था। वर्ष १९९२ से २00२ के बीच विदेशी संस्थागत निवेशकों ने कुल मिलाकर तकरीबन १0 अरब डॉलर का निवेश किया।
लेकिन वर्ष २00३ में ‘सार्स’ का हौआ फैलने के बाद परिस्थितियां आश्चर्यजनक ढंग से बदल गईं। हेज फंड्स संपत्ति वर्ग में आ गए। जोखिम लेना एक तरह से चलन सा हो गया और हर कोई भारत जैसे तेजी से उभरते बाजारों में निवेश करना चाहता था। लेकिन एक समस्या थी- कोई भी वास्तव में सेबी में पंजीबद्ध होकर एफआईआई का रजिस्ट्रेशन नहीं लेना चाहता था। ये हेज फंड्स ही हैं, जो कहीं से भी पैसा बनाने और खरीदने-बेचने की इजाजत देते हैं।
हर नियामक समस्या का एक साधारण वित्तीय ताने-बाने के आधार पर बुना गया हल होता है। पार्टिसिपेटरी नोट्स(पी-नोट्स) का जन्म, या कहें तो पुनर्जन्म हुआ। सबसे पहले इसका इस्तेमाल १९९४-९५ के उछाल भरे दिनों में किया गया और इसने जीवन को एक नया आयाम दिया।
यदि कुछ अल्पकालीन निवेशक एफआईआई के तौर पर निवेश नहीं करना चाहते, तो उन्हें सिर्फ इतना करना होता कि वे हांगकांग, लंदन या न्यूयॉर्क में अपने किसी दलाल को फोन करें और उसे किसी कंपनी मसलन ओएनजीसी के दस लाख शेयर खरीदने का ऑर्डर दें।
अंतरराष्ट्रीय दलाल इस खरीदार को एक पी-नोट्स जारी कर देता और उससे धन लेकर भारत में या तो अपनी स्थानीय शाखा के जरिए या फिर अपने एफआईआई लायसेंस के जरिए निवेश कर देता। अचानक, भारतीय पूंजी बाजार सच्चे मायनों में सबके लिए खुल गया। यदि आपने दलाली के रूप में एक फीसदी शुल्क अदा किया है तो जहां तक दलाल की बात है, उसके लिए आप ‘सही और उपयुक्त’ हैं।
गणित बिलकुल सीधा है- २५ अरब डॉलर का अल्पकालीन पूंजी निवेश पी-नोट्स के जरिए भारत में आया, जिसके लिए एक फीसदी शुल्क अदा किया गया। इसका मतलब २५ करोड़ डॉलर की दलाली के रूप में आय हुई। मान लेते हैं कि यह धन एक वर्ष में चार गुना हो जाता है। इसका मतलब है कि १ अरब डॉलर की आय कमीशन के रूप में और शायद व्यापारिक लाभों के रूप में होगी।
देखा जाए तो शेयर बाजारों को एक वाहिका की तरह बनाया गया, जिसके माध्यम से जरूरतमंद कंपनियां अपने व्यवसय के संचालन के लिए बचतकर्ताओं से धन ले सकें। लेकिन ये शेयर बाजार आज सट्टेबाजी के लिए स्वर्ग बन गए हैं। ऐसा तर्क दिया जाता है कि बाजार में जितनी ज्यादा तरलता होगी, बाजार की कीमतें उतनी ही ‘करेक्ट’ होती हैं।
क्या वास्तव में ऐसा है? आपको याद है कि हिमाचल फ्यूचरिस्टिक और विकास डब्ल्यूएसपी या एनरॉन जैसी कंपनियां बाजार की खरीद-फरोख्त में कितनी सक्रिय रहीं? उनकी बाजार कीमतों के बारे में क्या ‘करेक्ट’ था, जब वे सक्रिय तौर पर खरीद-फरोख्त कर रही थीं?
देश की दीर्घकालीन पूंजी की जरूरतें और पूंजी के दीर्घकालीन प्रदाताओं के बीच एक सामंजस्य को प्रोत्साहित करने के लिहाज से एफआईआई पॉलिसी बनाई गई। कहीं न कहीं, कुछ हद तक ब्रोकिंग कमीशनों की ताकत ने इस पॉलिसी को हाइजैक कर लिया है और हम महज एक कैसिनो बनकर रह गए हैं।
आने वाला कुछ समय बहुत महत्वपूर्ण है। पी-नोट धारक जैसे-जैसे भारत से बाहर निकलेंगे, वैसे-वैसे शेयर बाजार में गिरावट आ सकती है। इसके चलते कई याचिकाएं दाखिल की जा सकती हैं और सेबी के सुझावों का विरोध हो सकता है। आखिर उन्होंने पी-नोट्स पर प्रतिबंध नहीं लगाया है, उन्होंने तो सिर्फ इनके इस्तेमाल को सीमित किया है। लेकिन यह एक बढ़िया कदम है और निवेश के क्षेत्र से सट्टेबाजी को बाहर करने में यह बहुत महत्वपूर्ण साबित होगा।
लेखक एसेट मैनेजमेंट कंपनी के डायरेक्टर हैं।
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